स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय-आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती 19वी सदी के एक महान दार्शनिक, वैदिक धर्म के प्रवर्तक एवं समाज सुधारक तथा आधुनिक भारत के महान चिंतक थे। इसके साथ महिलाओं की शिक्षा पर पूरा ज़ोर दिया एवं विधवा विवाह की भी शुरुआत किया। उनका मानना था कि वेद ही सभी ज्ञान के स्रोत एवं सच्चा शास्त्र हैं, वेद ही सबसे प्रामाणिक ग्रंथ है, वेद के अनुसार जीवन जिया जाए।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय (Swami Dayananda Saraswati)
नाम | दयानंद सरस्वती |
उपनाम | मूल शंकर तिवारी |
माता – पिता का नाम | पिता करशनजी लालजी कपाड़ी और माता यशोदाबाई थीं। |
जमतिथि एवं जन्म स्थान | 2 फरवरी 1824 को टंकारा गाँव, गुजरात |
गुरु का नाम | स्वामी विरजानंद सरस्वती एवं गुरु पूर्णानंद |
प्रमुख नारा | वेदों की ओर लौटो’, “इंडिया फॉर इंडियंस” अर्थात भारत भारतियों के लिए |
प्रमुख पुस्तक | सत्यार्थ प्रकाश, यजुर्वेद भाष्यम आदि |
अन्य उपाधि | भारत का मार्टिन लूथर |
संस्थापना एवं आंदोलन | आर्य समाज, शुद्धि आंदोलन |
मृत्यु | 30 अक्टूबर, 1883, अजमेर, राजस्थान |
स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती क्यों मनाया जाता हैं? (Swami Dayananda Saraswati)
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती 19वी सदी के एक महान दार्शनिक, वैदिक धर्म के प्रवर्तक एवं समाज सुधारक तथा आधुनिक भारत के महान चिंतक थे। इसके साथ महिलाओं की शिक्षा पर पूरा ज़ोर दिया एवं विधवा विवाह की भी शुरुआत किया। उनका मानना था कि वेद ही सभी ज्ञान के स्रोत एवं सच्चा शास्त्र हैं, वेद ही सबसे प्रामाणिक ग्रंथ है, वेद के अनुसार जीवन जिया जाए।
उनके योगदान को देखते हुए भारत एवं विश्व में प्रतिवर्ष उनकी जन्मतिथि पर महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती मनाते हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती की जन्म तिथि एवं जन्मस्थान
दयानंद सरस्वती का जन्म पारंपरिक हिंदू कैलेंडर के अनुसार, फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था।
अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गाँव, गुजरात में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
स्वामी दयानंद सरस्वती के माता-पिता कौन थे?
उनके पिता करशनजी लालजी कपाड़ी थे, और उनकी माता यशोदाबाई थीं। उनके माता-पिता ब्राह्मण थे।
दयानंद सरस्वती का वास्तविक नाम क्या था?
दयानंद सरस्वती का वास्तविक नाम मूल शंकर तिवारी था। कहा जाता है कि मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण उनका नाम पहले मूल शंकर तिवारी रखा गया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन, शिक्षा एवं दीक्षा (Swami Dayananda Saraswati)
दयानंद सरस्वती जी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। उनका ब्राह्मण परिवार शैव भक्त था। इसलिए मूल शंकर को बहुत कम उम्र से ही धार्मिक रीति -रिवाजों को पूरा ज्ञान करा दिया गया था। कहा जाता है कि बचपन से ही उन्हें यजुर्वेद पूरी तरह कंठस्थ करा दिया गया था। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, संस्कृत एवं व्याकरण की शिक्षा उन्हें अपने चाचा से मिली थी एवं धारा प्रवाह संस्कृत बोलना बचपन से ही आता था वेदों एवं धर्मशास्त्रों का ज्ञान उन्हें बचपन से ही दिया गया था।
आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश एवं गृह त्याग की घटना :
स्वामी दयानंद बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृति के थे। कहा जाता है कि शिवरात्रि के अवसर पर, उसने देखा कि एक चूहा भगवान के प्रसाद को खा रहा है और मूर्ति पर दौड़ रहा है। यह देखने के बाद, उसने सोचा, अगर भगवान एक छोटे से चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकते तो वह इस संसार का रक्षक कैसे हो सकता है।
अपनी बहन एवं चाचा की मृत्यु के कारण वे अत्यंत दुखी हुए तथा जीवन, मृत्यु संबंधी में सवाल पूछने की प्रवृति जागृत हुई। परिवार में सभी से यह प्रश्न करने लगा कि पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था। जब उन्हें शादी करने के लिए कहा गया तो उन्होने अपना घर त्याग दिया।
वे वर्षों तक मंदिरों, तीर्थोस्थानों और पवित्र स्थानों एवं नदियों के तट पर पूरे देश में घूमता रहा। साधु एवं योगियों से प्रश्न एवं उसी के साथ भ्रमण करते रहे करते रहे। भ्रमण के दौरान उनके मूलकात वृद्ध सन्यासी गुरु पूर्णानंद से हुई जी शैव भक्त थे। गुरु पूर्णानंद ने उन्हें दीक्षा प्रदान की एवं दीक्षा पाने के बाद वे दयानंद कहलाने लगे।
मथुरा में गुरु स्वामी विरजानंद सरस्वती से मुलाक़ात
क़रीबन 1870 में उनकी मुलाक़ात स्वामी विरजानंद सरस्वती से हुई। वे अवतारवाद और मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे एवं वेदों के प्रकांड विद्वन थे। मूल शंकर उनके शिष्य बन गए और स्वामी विरजानन्द ने उन्हें योग विद्या एवं शस्त्र ज्ञान की शिक्षा दी एवं जीवन, मृत्यु संबंधी सभी सवालों का जवाब पाया।
देशवासियों को वेद का ज्ञान एवं पुनजागृत करने का कार्य
कहा जाता है कि स्वामी विरजानंद ने ही मूल शंकर को पूरे देश में वैदिक ज्ञान एवं वैदिक संस्कृति, समाज में व्याप्त आडंबरों, कुरीतियों आदि को दूर करने एवं देशवासियों को जागृत करने का कार्य सौंपा।
जब हम पश्चिम की संस्कृति की सामने हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को भूल चुके थे, हिन्दू धर्म पर तरह तरह के आक्रमण किए जा रहा था। ऐसे समय में दयानंद सरस्वती ने हमें आत्म सम्मान एवं पुनर्जागरण का मार्ग दिखाया ।
उस समय हिन्दू धर्म भारत में उन्होने हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा एवं मान -सम्मान को फिर से स्थापित कर दिया।
हिन्दी भाषा एवं स्वामी दयानंद सरस्वती तथा आचार्य केशवचन्द्र सेन
स्वामी दयानंद सरस्वती संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान था, पर प्रचार -प्रसार के लिए यह भाषा समय के अनुकूल नहीं थी। जब 1872 में स्वामी दयानंद सरस्वती कलकता आए तो प्रार्थनासमाज के संस्थापक आचार्य केशवचंद्र सेन ने उनका स्वागत किया एवं कहा वे आपना भाषण संस्कृत के जगह हिन्दी में दें। इससे देश की जनता आप से जुड़ पाएँगी।
इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने मतों को प्रचार प्रसार करने के लिए हिन्दी भाषा का ही सहारा लिया था। उन्होने पूरे भारत में हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में देखा। इससे देश में उन्हें मानने वाले अनुयायियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ने लगी। इसमें उत्तर भारत एवं पश्चिम भारत के लोग ज्यादा थे।
उनकी रचित पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप से हिन्दी भाषा में ही है।
आर्य समाज की स्थापना
1875 को दयानंद सरस्वती ने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। यह एक सुधार आंदोलन था। देश के लोगों आत्म सम्मान एवं उन्हें जागृत करने एवं वैदिक संस्कृति को अपनाने के लिए उन्होंने नारा दिया। उनका नारा था –‘वेदों की ओर लौटो’
आर्य समाज में बाल विवाह, तीर्थयात्रा, मंदिर पूजा , मूर्ति पूजा, जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, छुआछूत का विरोध किया गया जिनका वेद में कोई जिक्र नहीं। एवं वैदिक दर्शन और कर्म सिद्धांतों को बढ़ावा दिया। सामाजिक व्यवस्था कर्म के आधार हो आदि का समर्थन किया और इसके लिए उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। इसके अलावा, पशु बलि, मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाना आदि का भी विरोध किया गया।
“इंडिया फॉर इंडियंस”
1876 में उन्होने देश के आजादी के लिए “इंडिया फॉर इंडियंस” अर्थात भारत भारतियों के लिए नारा दिया। उनके विचारों से बालगंगाधर तिलक से महात्मा गांधी तक प्रभावित थे।
शिक्षा में सुधार
स्वामी जी आधुनिक भारत के दूरदर्शी एवं महान चिंतकों में से एक थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने शिक्षा प्रणाली में भी परिवर्तन किया एवं पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों को प्रोत्साहित करते हुए महिला शिक्षा पर ज़ोर दिया।
1883 में उनकी मृत्यु के बाद दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसाइटी की स्थापना की। पहला डीएवी हाई स्कूल 1886 को लाहौर में स्थापित किया गया था।
शुद्धि आंदोलन
महर्षि दयानंद ने शुद्धि आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का उद्देश्य हिन्दू धर्म से अन्य धर्म में परिवर्तित हुए लोगों को हिन्दू धर्म में वापिस लाना था।
महर्षि दयानंद सरस्वती की शिक्षाएँ एवं उपदेश
- वेद के अलावा कोई कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं है। वेद सभी सच्चे ज्ञान के शास्त्र हैं।
- ईश्वर का रूप निराकार है एवं वह सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक है। सब मनुष्य को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है।
- बाल विवाह, तीर्थयात्रा, मंदिर पूजा , मूर्ति पूजा, जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, छुआछूत का जिक्र वेद में नहीं है अतः इससे दूर रहना चाहिए। महिलाओं की शिक्षित किया जाए।
- पशु बलि, मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाना एवं पशु हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
- सबका कल्याण करना। विश्व का कल्याण की भावना अपनानी चाहिए।
दयानंद सरस्वती की रचनाएँ
सत्यार्थ प्रकाश, यजुर्वेद भाष्यम आदि
दयानंद सरस्वती को भारत का मार्टिन लूथर क्यों कहा जाता है?
देश के आजादी के लिए “इंडिया फॉर इंडियंस” अर्थात भारत भारतियों के लिए नारा देने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने पहली बार अपने लेखन के जरिए स्वशासन की मांग उठाई थी। इसीलिए दयानंद सरस्वती को भारत का मार्टिन लूथर क्यों कहा जाता है?
मृत्यु: 30 अक्टूबर, 1883
मृत्यु का स्थान: अजमेर, राजस्थान
निष्कर्ष:
कहा जा सकता है कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती 19वी सदी के एक महान दार्शनिक, वैदिक धर्म के प्रवर्तक एवं समाज सुधारक तथा आधुनिक भारत के महान चिंतक थे।स्वामी जी के आर्य समाज का भारत सहित पूरे विश्व में 10000 से भी अधिक शाखाएँ है।
उनके विचारों ने भारतीयों के आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक सुधार किया एवं कई प्रसिद्ध भारतीय नेता एवं क्रांतिकारी इनसे प्रभावित थे। इसमें महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं राम प्रसाद बिस्मिल, जैसे कई लोग शामिल है। महिलाओं के लिए विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा को ज़ोर दिया।
उन्होने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और जाति-प्रथा, मूर्ति पूजा की प्रथा आदि का विरोध कर उनमें सुधार किया। राष्ट्रीय स्तर उन्होंने देश को स्वराज की संकल्पना दी। उन्होंने संदेश दिया कि सभी को मनुष्य की भलाई के लिए कार्य करे तभी सभी का कल्याण हो सकेगा। आज देश स्वामी दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती मना रहा है।
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