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सूरदास का जीवन परिचय, जयंती, एवं सूरदास की रचनाओं के बारे में सम्पूर्ण जानकारी (Surdas ka jivan parichay)

Surdas ka jivan parichay : आज हम ऐसे कवि एवं संत के बारे में जानेंगे जिसकी कृष्ण भक्ति  पूरे भारतीय संस्कृति में रची बसी है। सूरदास भक्तिकाल के कृष्णभक्ति शाखा के सबसे महत्वपूर्ण कवि, कृष्ण भक्त, गीतकार माने जाते है। ( सूरदास का जीवन परिचय (Surdas ka jivan parichay)) 

Table of Contents

सूरदास जयंती 

सूरदास जयंती 2024 में 12 मई को मनाया जा रहा है। इस वर्ष पूरे देश में 546वीं जयंती मनाई जा रही है।  उनकी जयंती पर इसमें सूरदास जी के जीवन परिचय, सूरदास जी की महत्वपूर्ण रचनाओं, सूरदास जी काव्य के विविध रूप भाव पक्ष एवं कला पक्ष, सूरदास की भक्ति भावना, सूरदास का भ्रमरगीत, सूरदास के लोकगीत, सूरदास के पद, दोहे एवं, भजन, कविताओं का विवेचन किया गया है। 
 
 
सूरदास के जीवन संबंधी तथ्यों का विवरण नीचे दिया है-

सूरदास का जीवन परिचय  – surdas ka jivan parichay

 

 

सूरदास का जन्म 

1478 ईस्वी

जन्मस्थान 

रुनकता, उत्तर प्रदेश 

पिता का नाम

पिता का नाम -रामदास 

माता का नाम

माता का नाम- जमुनदास

भक्ति (मंदिर) का स्थान 

श्रीनाथ जी के मंदिर 

साहित्यिक रचनाएँ एवं कृतियाँ 

सुरसागर, सुरसुरावली, साहित्य लहरी 

भाषा शैली

ब्रजभाषा, गेय मुक्तक शैली

सूरदास के गुरु एवं संप्रदाय 

बल्ल्भाचार्य, पुष्टिमार्ग संप्रदाय 

रस 

वात्सल्य एवं शृंगार रस 

प्रवर्तक

भ्रमरगीत परंपरा के प्रवर्तक 

हिन्दी साहित्य में स्थान 

भक्तिकाल के कृष्णभक्तिशाखा, अष्टछाप के प्रमुख कवि 

उपाधि 

वात्सल्य सम्राट सूरदास 

मृत्यु

1583 ईस्वी, उत्तर प्रदेश, मथुरा में 

यहां आगे सूरदास के जीवन परिचय संबंधी विवरण नीचे दिया गया है-  

कवि सूरदास का आरंभिक जीवन – जन्म एवं जन्मस्थान-Early Life of Poet Surdas – Birth and Birthplace -Surdas ka jivan parichay

सूरदास जी का जन्म 1478 ईस्वी में हुआ था। जनश्रुति के अनुसार सूरदास  का जन्मस्थान रुनकता, उत्तर प्रदेश है। कहा जाता है कि वे जन्म से ही अंधे थे एवं बचपन से ही उनमें संतों एवं वैराग्य वाली प्रवृति थी। मथुरा के नदी-घाटों में निवास करते थे।

सूरदास के माता -पिता – सूरदास के गुरु

सूरदास के पिता का नाम रामदास था एवं माता का नाम जमुनादास था।   मथुरा के घाटों पर सूरदास जी अपने गुरु बल्ल्भाचार्य से मिले थे। बल्ल्भाचार्य ने ही उन्हें अन्तः दीक्षा प्रादन की। इसके पश्चात वे गोवर्धन पर्वत पर निवास करने लगे।

इसके पश्चात गोवर्धन पर्वत पर ही श्रीनाथ जी के मंदिर में वे पूजा अराधना, कीर्तन एवं कृष्णभक्ति संबंधी पदों की रचना करते एवं सुनाते थे, जिसकी संगीत की गूंज से मुगाल शासकों से लेकर आम जनता भी प्रभावित हुई।  

सूरदास की भक्ति भावना- Surdas ki Bhakti Bhavna

कहा जाता है कि आरंभ में सूरदास जी कबीर की भांति योग, जाति-पाति, मूर्ति पूजा के विरोध, गुरु का महत्व आदि संबंधी उपदेश देते थे। जब आचार्य बल्ल्भाचार्य ने सूरदास को पुष्टिमार्ग संप्रदाय में लाए तो वे कृष्ण भक्ति की ओर उन्मुख हुए एवं कृष्ण लीला के गुणगान करने लगे। 

सूरदास जी भगवान कृष्ण के परम भक्त थे, उनमें कृष्ण के प्रति उनमें अथाह प्रेम था, उनकी भक्ति भावना प्रेमभक्ति की थी, जिसे उन्होने अपनी रचनाओं के माध्यम से उकेरा है जहां ब्रज की धरती में कृष्ण के प्रति सभी को प्रेम है।

यहाँ एक ओर ब्रज का प्राकृतिक सौंदर्य प्रेम है, श्रीकृष्ण के बाल लीलाओं एवं बाल चेष्टाओं के प्रति माता यशोदा का प्रेम है, पिता नन्द का प्रेम है, तो दूसरी ओर राधा का प्रेम है, गोपियों का प्रेम है। बालक कृष्ण की मनमोहक छवि का जैसा सुंदर वर्णन सूरदास ने किया है वो भारतीय जनमानस में रच-बस गया है। माता यशोदा का अपने पुत्र कृष्ण के प्रति प्रेम में आज हर भारतीय  माँ अपने को देखती है । 

 

आचार्य बल्ल्भाचार्य की देखरेख सूरदास जी पुष्टिमार्ग संप्रदाय में रहते हुए कृष्णभक्त बने अतः पुष्टिमार्ग संप्रदाय के बारे में जानना आवश्यक है- 

सूरदास एवं पुष्टिमार्ग संप्रदाय-Surdas and Pushtimarg

आचार्य बल्ल्भाचार्य ने भागवत पुराण के आधार पर कृष्ण भक्ति का प्रचार – प्रसार किया था एवं इसी के आधार अपना पुष्टिमार्ग संप्रदाय स्थापित किया। भागवत पुराण के अनुसार पुष्टिमार्ग को इस प्रकार बताया गया है- 

  “पुष्टि कि मे ? पोषणम्। पोषणं किम्। तदनुग्रहः भगवत्कृपा ।” 

अर्थात पुष्टिमार्गी भक्ति में ‘पुष्टि’ भगवद् अनुग्रह या कृपा को कहा जाता है, भक्तों में भक्ति की भावना को जागृत करना ईश्वर के कृपा पर निर्भर होता है, जिसमें भक्त को समर्पित भाव से ईश्वर की लीला में शामिल होना होता है। इस मत के अनुसार ईश्वर भक्तों के कल्याण एवं कृपा करने के लिए इस धरा पर आते हैं।  

सूरदास एवं अष्टछाप – Surdas and Ashtchaap

आचार्य बल्ल्भाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने 1565 ई में आचार्य बल्ल्भाचार्य के 4 शिष्य एवं अपने 4 शिष्यों को 8 संतों एवं कवियों एक समूह की स्थापना की जिसे अष्टछाप कहा जाता है। गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी के मंदिर में ही सूरदास जी अपने जीवन पर्यंत सेवा करते रहे।  अपने कृष्ण के अपने पदों की रचना गाकर, कीर्तन करके ही कराते थे।  

आचार्य बल्ल्भाचार्य के 4 शिष्य इस प्रकार हैं- सूरदास, कुंभन्दास, परमानंद दास, कृष्णदास 

गोस्वामी विट्ठलनाथ के 4 शिष्य इस प्रकार हैं- छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, कृष्णदास, चतुर्भुजदास  

सूरदास जी की रचनाएँ-Surdas ki rachna

सूरदास जी की करीब 25 से ज्यादा रचनाएं है, पर उनके लिखे कुल 03 ग्रंथों को ही प्रामाणिक माना गया है। प्रामाणिक रचनाएँ इस प्रकार है – सूर सारावली, सूरसागर, साहित्य लहरी, 

सूरदास जी की अन्य रचनाएँ इस प्रकार है- 

दृष्टिकूट के पद, सूर सागर सार, गोवर्धन लीला, विनय के स्फुट पद, राधा रसकेलि कौतूहल, दान लीला, नाग लीला, व्याह लो, सूर शतक, सूर पचीसी, नल दमयन्ती आदि। 

सूरसागर

  • सूरदास जी की प्रसिद्धि कारण यह सूरसागर ग्रंथ ही है।
  • सूरसागर का आधार ग्रंथ भागवत पुराण है, पर सूरसागर सूरदास जी की मौलिक कृति है। 
  • कहा जाता है सूरसागर के कुल 12 स्कन्ध है जिसमें लाखों पदों का समावेश है।
  • सूरसागर में कृष्ण की लीलाओं का पूरा सजीव चित्रण किया गया है।  
  • इसमें ब्रज गाँव का प्राकृतिक बिम्ब उभकर सामने आता है एवं दूसरी ओर भ्रमरगीत का विवेचन किया गया है। 

सूर सारावली

  • सूर सारावली सूरदास जी की एक प्रमुख प्रामाणिक ग्रंथ है।
  • इसमें कुल 1107 गेय पद हैं।
  • इसमें  सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है।
  • यह ग्रंथ होली गीत के रूप में रचित है। 

साहित्य लहरी

  • साहित्य लहरी 118 पद में रचा गया एक लघु ग्रंथ है।
  • सूरदास के दृष्टिकूट पदों का संग्रह है। दृष्टिकूट पदों का अर्थ यह है कि इसका अर्थ सामान्य या सहज अर्थ से नहीं होते, बल्कि इसके पीछे की भावना अलग होती है। 
  • इसमें रस, अलंकार एवं नायिका भेद वर्णन। 
  •  

सूरदास का भ्रमरगीत-Surdas ka bhramargeet

  • सूरदास के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सुरसागर’ में सूरदास ने भ्रमरगीत के बारे में बताया है। इसमें कुल 700 पद का संग्रह है।
  • हिन्दी साहित्य में भ्रमरगीत परंपरा को आरंभ सूरदास जी ने ही किया इसीलिए उन्हें भ्रमर गीत के प्रवर्तक माना जाता है।
  • सूरदास के पदों की एक विशेषता यह भी है कि इनके सभी पदों में गेयता है अर्थात यह गाए जाने वाला पद है। 
  • इन गीतों को भ्रमरगीत नाम इसीलिए दिया गया है कि जब कृष्ण ब्रज एवं वृन्दावन को छोड़कर मथुरा जाकर बस जाते हैं तो कृष्ण के वियोग में नन्द, यशोदा, गोपियाँ, राधा सभी व्याकुल हो उठते हैं।
  • कृष्ण को भी ब्रजवासियों की याद आती है। कृष्ण ने उद्धव नाम के व्यक्ति से अपना संदेश ब्रजवासियों के लिए भेजते हैं। 
  • उद्धव को अपने ज्ञान पर बड़ा गर्व था। उद्धव को आते ही ब्रजवासी कृष्ण के बारे में पुछने लगते हैं। पर उद्धव कृष्ण के संदेश के रूप में ज्ञान की बातें करने लगते हैं जिसे गोपियाँ को पसंद नहीं आया। तभी एक भौंरा वहाँ आकार गुंजन करने लगता है। गोपियाँ इस भौंरा को माध्यम बनाकर उद्धव पर गुस्सा निकालने लगती है। 

“वह मथुरा काजर की कोठारी जे आवहें ते कारे।

तूम करे सुफलकसूत कारे, कारे मधुप भंवारे॥’ 

इस प्रकार गोपियों एवं उद्धव के बीच तर्क-वितर्क शुरू हो जाता है। 

सूरदास का वात्सलय वर्णन -Surdas ka vatslay

सूरदास जी ने भगवान कृष्ण के जन्म से लेकर भगवान कृष्ण के जीवन के हरेक पहलू का पुरा विवरण सुरसागार में किया है। बालकृष्ण के सौंदर्य, बाल क्रीड़ाओं, बाल चेष्टाओं जैसे कृष्ण का चलना, कृष्ण की वेशभूषा, माखन चोरी करना, आदि से ब्रजवासी, नन्द-यशोदा, गोपियाँ सभी मनमुग्ध हो जाता है। माखन चोरी का एक उदाहरण देखिए- 

मैया मैं नहि माखन खायो। ‘ख्याल’ परे सब सखा संग मिली मेरे मख लपटायो। 

अर्थात बालक कृष्ण कहते हैं कि माखन मैने नहीं खाया, इन सब ग्वाल-बालों ने मेरे मुख पर लगा दिया है। अपने भाई की शिकायत मटा यशोदा से करते हुए बालक कृष्ण का मनोरम दृश्य- 

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो। मोसो कहत मोल को लीन्हो तोहि जसुमति कय जायो ।

अर्थात मुझे भाई बलराम यह कहकर चिढ़ा रहे हैं कि मैं माता यशोदा का पुत्र नहीं हूँ मुझे खरीदा कर लाया गया है। बालक कृष्ण को ऐसा लगता है कि उसकी केसो की चोटी बढ़ नहीं है, इस पर माता यशोदा से कहते है- 

मैया कबहि बढ़ेगी चोटी ? किती बार मोहि दूध पियति भई, यह अजहूँ है छोटी।

कुछ और उदाहरण –

शोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुन चलत रेनु तन मंडित मुख दधि सेप किए। 

सिखवत चलत जसोदा मैया। 

सूरदास के संबंध में आ. रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आंखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों कोना-कोना झांक आए है।” 

 कृष्ण के बाललीला एवं माता यशोदा के मातृभावनाओं का जितना सुंदर चित्रण सूरदास ने किया है, उतना अभी किसी और कवि के बस की बात नहीं, इसीलिए सूरदास को वात्सल्य सम्राट भी कहा जाता है।

सूरदास के पद, सूरदास के दोहे, भजन, कविताएं-

Surdas ke pad, Surdas ke dohe, Bhajan, Kavita

सूरदास के पद एवं दोहे की कुछ पंक्तियाँ नीचे दिए गए हैं – 

  • जसोदा हरि पालनै झुलावैं । हलरावै, दुलराइ, मल्हावै, जोई सोइ कछु गावै
  • बूझत स्याम कौन तू गोरी। तू कहाँ रहति, काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी ।
  • घुटुरुन चलन रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए ॥  
  • सिखवत चलन जसोदा मैया अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धरै पैयौ ॥
  • शोभित कर नवनीत लिए ।
  • मैया कबहि बढेगी चोटी !कितिक बार माहिं दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥ 
  • खेलन में को काको गुसैयाँ ?
  • निर्गुन कौन देस को बासी ?
  • मधुकर हँसि समुझाय सौह दै बूझति सांच, न हांसी ॥
  • मधुबन तुम कत रहत हरे ।
  • हरि है राजनीति पढि आए, समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए? 
  • संदेसो देवकी सों कहियों ।
  • बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिके उन ब्रज पठई। 
  • सूरदास प्रभु राधा माधव, व्रज बिहार नित नई-नई ॥
  • मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
  • प्रभु जी मेरे अवगुन चित न धरो ।
  •  आयो घोष बड़ो व्यापारी । 
  •  आये जोग सिखावन पांडे ।
  • अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी ।

सूरदास की भाषा शैली-Surdas ki bhasha

सूरदास जी ने अपने रचनाओं के लिए ब्रजभाषा का उपयोग किया है। कहा जाता है कि इनके पहले भी ब्रजभाषा का उपयोग कवियों ने किया था पर उतनी सफलता उन कवियों को नहीं मिली जैसे सूरदास जी को। आ रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ब्रजभाषा में पहली साहित्यिक कृति सूरदाज़ जी की है। इसके अलावा अरबी फारसी शब्दों का प्रयोग भी कहीं-कहीं किया गया है। पदों की गे बनाने के लिए छंदों में दोहा, रोला छ्ंद का प्रयोग मुख्य रूप से किया गया है। 

सूरदास के संबंध में संक्षेप में निष्कर्ष –

अंततः कहा जा सकता है कि सूरदास जी भक्तिकाल एवं भक्ति आंदोलन के एक महत्वपूर्ण कवि है। उनकी ख्याति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के तीन रत्नों (अर्थात कबीर, सुरदास एवं तुलसीदास) में वे शामिल हैं जिसके बिना भक्तिकाल को परिभाषित नहीं किया जा सकता।

आज भारत के हर विद्यालय, कालेज एवं विश्वविद्यालयों में सूरदास के पद, दोहे एवं, भजन, कविताएं पढ़ाई जाती है। सूरदास ने अपनी रचना सूरसागर में बालक कृष्ण की लीलाओं का जितना सुंदर एवं मनोहारी वर्णन किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। आज जो टेलीविजन पर हम कृष्ण की लीलाओं पर फिल्में एवं कार्टून देखते हैं, उनमें सूरदास जी की रचनाओं की ही झलक मिलती है। 

सूरदास जी 1583 ईस्वी, उत्तर प्रदेश, मथुरा में अपनी अंतिम साँसे ली। उनकी मृत्यु पर विट्ठलदास जी ने कहा था – 

पुष्टिमार्ग कौ जहाज जात है। जाय कछु लेनों होय सो लेउ ॥ 

सुरदास के संबंध में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न –

Q-सूरदास किस भाषा के कवि थे?

A- ब्रजभाषा

Q-सूरदास के माता का नाम?

A- जमुनादास

Q-सूरदास के पिता का नाम?

A- रामदास

Q-सूरदास के गुरु कौन थे? सूरदास किसके शिष्य थे? 

A- आचार्य बल्लभाचार्य

Q-सूरदास की मृत्यु कब और कहाँ हुई?

A- 1583 ई. मथुरा, उत्तर प्रदेश,

Q-सूरदास का जन्म कब हुआ था?

A-1478 ईस्वी

Q-सूरदास का जन्म स्थान कहां है?

A- रुनकता, उत्तर प्रदेश

Q-सूरदास की प्रमुख रचना/रचनाएँ ?

A- सुरसागर

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