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मीराबाई का जीवन परिचय के माध्यम से मीराबाई की जीवनी, साहित्य, रचनाएँ, भक्ति – भावना एवं मीराबाई की पदावली पर प्रकाश डाला गया है। आम जन मानस में मीरा की जो छवि है, वह यह है कि मीरा भगवान कृष्ण की परम भक्त एवं कृष्ण भक्तिन कवि के रूप में प्रसिद्ध है। जबकि हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के अंतर्गत मीरा का जिक्र मिलता है। हिन्दी साहित्य एवं भारतीय संस्कृति में मीराबाई का नाम बड़े ही आदार एवं सम्मान के साथ लिया जाता है।
मीराबाई का जीवन परिचय : मीराबाई कौन थी?
मीराबाई एक कृष्ण भक्त कवि थी जिसका जिक्र मध्ययुग में मिलता है। वह बचपन से ही कृष्ण को ही अपना सब कुछ मानती थी। मीराबाई का जन्म एक राजघाराने में हुआ था। अतः राजघराने की कन्या होने के नाते उस पर कई बंदिशे लागू थी। पर कृष्ण की भक्ति, भजन एवं कीर्तन में मीरा इन बन्दिशों को भूल जाती थी। उनके लिए कृष्ण की भक्ति ही सर्वोपरि थी।
नाम एवं उपनाम | मीरा, मीराबाई |
जन्म वर्ष | 1498 ई. |
जन्मस्थान | जोधपुर के कुड़की गाँव (मेड़ता) |
मृत्यु | 1547 ई |
मृत्यु स्थान | द्वारिका, गुजरात |
माता – पिता का नाम | राव रतन सिंह राठौर एवं माता वीर कुमारी |
पति का नाम | भोज राज सिंह |
ससुर | राणा सांगा |
रचनाएँ | राग गोविंद, सत्यभामानु रूसणं, मीरां के गरबी, रुक्मणीमंगल, नरसी मेहता की हुंडी, चरीत स्फुट पद, गीतगोविंद की टीका, नरसी जी का मायरा, राग सोरठ का पद, मलार राग, |
प्रसिद्धि | कृष्ण भक्ति |
भाषा | ब्रज एवं राजस्थानी |
शैली | गीत एवं पद शैली |
मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
कहा जाता है कि महान कृष्ण भक्त कवियित्री मीराबाई का जन्म वर्ष 1498 में राजस्थान के जोधपुर के कुड़की नामक गाँव में हुआ था। लोक प्रचलित धारणा है कि बचपन से ही मीराबाई का कृष्ण के प्रति अनुराग था। मीराबाई अपने बचपन में अपने दादा रावदूदा जी से काफी लगाव था। 2 वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता का देहांत हो गया। इस प्रकार माता का बचपन में ही देहांत एवं पिता के युद्ध में व्यस्तता के कारण दादा रावदूदा जी ने मीरा को काफी स्नेह एवं प्यार से लालन -पालन कर रहे थे।
मीराबाई के माता -पिता कौन थे?
मीराबाई के पिता राव रतन सिंह राठौर थे जबकि माता वीर कुमारी थी। मीराबाई के माता -पिता उस समय के प्रसीद्ध व्यक्ति थे एवं राजस्थान के बड़े राज घराने से उनका ताल्लुक था।
मीराबाई का विवाह : मीराबाई के पति,
मीराबाई का विवाह अत्यंत बचपन में ही कर दिया गया था। मीरा का विवाह प्रसिद्ध राजा राणा सांगा के बड़े पुत्र कुँवर भोजराज के साथ वर्ष 1516 ई में हुआ था। मीराबाई को कृष्ण को ही अपना सबकुछ मानती थी। कहा जाता है कि मीरा ससुराल जाते समय कृष्ण की मूर्ति भी अपने साथ ले गयी थी। दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद करीबन 7 वर्ष बाद मीरा के पति भोजराज का भी देहांत हो गया। इस प्रकार मीराबाई युवावस्था में ही विधवा हो गयी।
इस घटना से मीराबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन ही कृष्ण के प्रति समर्पित कर दिया। वह साधु -संतो की संगति में उठने बैठने लगी। कृष्ण मंदिरों में घूमने लगी। चूंकि मीराबाई राजघराने से थी इसीलिए उसपर तरह के तरह की पाबन्दियाँ भी लगाई गयी। पर मीराबाई राजमहल त्याग चुकी थी। वह कृष्ण को ही अपना सबकुछ मानती थी। वह मंदिरों में जाकर कृष्ण प्रेम नाचने – गाने लगी थी। लोग उसे पागल भी कहने लगे थे।
मीरा का मंदिरों में घुंगरू बांधकर नाचना -गाना उस समय के समाज को स्वीकार नहीं हो रहा था, उसके परिवार के लोग भी इसे स्वीकार नहीं रहे थे। इन घटनाओं का जिक्र मीरा ने अपने पदों में जगह-जगह किया है-
“पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।
मैं तो सपने नारायण की, होगाई अपाहि दासी रे।
लोग कहे मीरा भई बाबरी, सास कहे कुलनासी रे॥”
मीरा का इस तरह का व्यवहार राणा सांगा के उत्तराधिकारी विक्रमाजीत सिंह को अच्छा नहीं लगा। उसने इस रवैये के लिए मीरा को कष्ट देना शुरू कर दिया। पर मीरा के कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ भक्ति एवं प्रेम की वजह से वह सब कुछ झेल पायी। बाद में मीराबाई द्वारका आ गयी एवं वही कृष्ण सेवा में अपना जीवन अर्पण किया। मीरा द्वारिका में रणछोड़ जी के मंदिर में भगवान कृष्ण की भक्ति करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगी।
मीराबाई की कहानी-
मीराबाई से संबंधित कई चमत्कारी घटनाएँ एवं किंवदंतियाँ जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि मीरा को मारने की कई सजीशें रची गयी पर कृष्ण प्रेम एवं भक्ति के कारण वह हर बार बच जाती। इनमें से कुछ कहानियाँ इस प्रकार है-
मीराबाई राजस्थान प्रसिद्ध राजपरिवार से थी। परिवार के लोगों का मीराबाई का व्यवहार उचित नहीं लग रहा था कि मीरा मंदिरों में जाकर भक्ति एवं भजन -कीर्तन करे। यह उस समय के राज घराने के विरूद्ध था। परिवार के लोगों को लगा कि इस तरह के आचरण से लोक निंदा हो रही है। अतः उन्होंने मीरा को जहर देकर मारने का प्रयास किया पर कृष्ण भक्ति के असर से मीरा पर जहर का असर नहीं हुआ। मीरा को कई बार साँपों से कटवाया भी गया। पर ईश्वर के चमत्कार से मीरा पर इसका कुछ भी असर नहीं हुआ।
मीरा को ज़हर किसने दिया था?
मीरा को ज़हर देकर जान से मारने की जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध है। कहा जाता राणा विक्रमाजीत सिंह ने षड्यंत्र रचकर मीरा को ज़हर देकर जान से मारने का प्रयत्न किया था। राणा विक्रमाजीत सिंह को राजघराने की बहु भक्ति एवं कृष्ण प्रेम करना आँखों में चुभ रहा था। मीरा ने इसका ज़िक्र किया है-
राणा जी थे ज़हर दियो म्हे ज़ाणी।
एसी कहानियाँ भी प्रचलित है कि मीरा को नदी में डूबने को भी कहा गया पर कृष्ण भक्ति के कारण मीरा हर बार नदी में बिना प्रयास ही तैरती नजर आई।
बचपन में ही कृष्ण को अपना पति मानने की कल्पना
कहा जाता है कि मीरा को कृष्ण की ओर झुकाव का एक प्रमुख कारण था। मीरा जब छोटी थी तो अपने माँ के साथ किसी वैवाहिक समारोह में भाग लेने के लिए गयी थी। चारों तरफ़ शादी विवाह का माहौल था ऐसे में बचपना में मीरा ने अपनी माँ से अपने पति का नाम पूछ लिया, तब उसकी माँ ने उसे कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर कहा कि कृष्ण ही उनके पति है।
मीराबाई की भक्ति – भावना-
मीराबाई की भक्ति – भावना भगवान कृष्ण के प्रति है। कृष्ण उनके लिए पति, परमेशवर, सखा, मित्र, सब कुछ है। हिन्दी साहित्य में मीराबाई की भक्ति – भावना का जिक्र माधुर्य भक्ति के अंतर्गत मिलता है। पति के देहांत के बाद मीरा अपने पति के रूप में कृष्ण को ही देखती थी। वह कृष्ण को पाने के लिए बेचैन रहती है एवं कृष्ण लीलाओं का गान करती है। मीरा के अनुसार –
मेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरौ न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट , मेरौ पति सोई॥
अर्थात मीरा के गिरधर गोपाल कृष्ण के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है एवं अपने पति के रूप में वह मोर मुकुट धारक कृष्ण को ही देखती है।
मीराबाई भक्त के रूप ज्यादा प्रसिद्ध रही, कवियित्री के रूप में नहीं। कृष्ण के प्रति मीरा की भक्ति दांपत्य भाव की भक्ति है। इस भक्ति में भक्त ईश्वर को ही अपना सबकुछ मान लेते हैं एवं उसे स्वामी एवं पति रूप में मानती है। मीरा के अनुसार उसने ‘राम रतन धन पायौ’ एवं ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरौ न कोई’
इसी दांपत्य भक्ति के अलावा मीराबाई कृष्ण लीला का गान करती है एवं कृष्ण के मनमोहक छवि को याद करती है।
मीराबाई की पदावली
मीराबाई के पद के संग्रह को ‘ पदावली’ कहा जाता है। विद्वानों ने इनके कुल पदों की संख्या 500 से भी अधिक बताई है। इन पदों में इनके सम्पूर्ण जीवन का परिचय मिल सकता है एवं साथ ही कृष्ण भक्ति पदों में कृष्ण के प्रति प्रेम, प्रार्थना, विरह एवं आत्मसमर्पण का भाव मिलता है। मीरा ने इन पदों जहां एक ओर अपने जीवन की कठिनाइयों का भी जिक्र किया है वहीं दूसरी ओर कृष्ण प्रेम का भी। मीराबाई की पदावली को अत्यंत पवित्र माना गया है। सिख धर्म के ग्रन्थों में मीराबाई की पदावली को भी शामिल किया गया है।
इनके पदों की खास विशेषता यह भी है कि इनके सभी पद गाए जाने वाले है। गीतात्मकता इनके पदों की खास विशेषता है। मीराबाई की पदावली के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं –
1-बिरहनी बावरी सी भई। ऊंची चढ़ि अपने भवन में टेरत हाय दई।
ले अंचरा मुख अंसुवन पोंछत उघरे गात सही। मीरां के प्रभु गिरधर नागर बिछुरत कछु न कही॥
2-‘स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषन दूषन हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई।।’
3-मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वाला हरन।
4-पग घुँघरु बाँध मीराँ नाची रे
मैं तो अपने नारायण की आपहि हो गई दासी रे.
5- जग सुहाग मिथ्या री सजनी हांवा हो मिट जासी।
वरन करयां हरि अविनाशी म्हारो काल-व्याल न खासी।
6-अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेल बोई।
7- घायल की गति घायल जानै और न जानै कोई।
8- जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
9-बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मीराबाई के गुरु कौन थे?
प्रसिद्ध जगतगुरु संत रविदास को मीराबाई के गुरु होने का गौरव प्राप्त है। संत रविदास हिन्दी के भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति के प्रमुख कवि एवं संत थे। उन्होने समाज के सभी वर्गों विशेषकर निम्न जातियों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। समाज में उंच -नीच, जाति-पाति के भेदभाव को मिटाया।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ-
मीराबाई की प्रमुख रचनाओं में उनकी पदावली को सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है जो कि स्फुट पद के रूप में है। इसके अलावा मीराबाई के नाम से कई रचनाएँ मिलती है, जो इस प्रकार है –
- राग गोविंद,
- सत्यभामानु रूसणं,
- मीरां के गरबी,
- रुक्मणीमंगल,
- नरसी मेहता की हुंडी,
- चरीत स्फुट पद,
- गीतगोविंद की टीका,
- नरसी जी का मायरा,
- राग सोरठ का पद,
- मलार राग,
- राग विहाग,
- गर्वागीत,
मीराबाई की भाषा
मीराबाई की रचनाओं की मुख्य भाषा राजस्थानी रही है, पर इनमें गुजराती, ब्रज एवं पंजाबी का भी प्रचुर इस्तेमाल दिखाई देता है। कहीं कहीं अवधि का भी पुट मिलता है।
सारांश यह है कि कृष्ण भक्त कवियित्री मीराबाई भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है। आज लोग मीरा का अर्थ ही कृष्ण से लेते हैं। उनकी पदावली प्रायः कृष्ण संबंधी प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गाया जाता है। लोग उनकी भक्ति का उदाहरण दते हैं। किसी महिला के लिए राजकुल को त्याग कर भक्ति मार्ग पर चलना आसान नहीं रहा होगा। आज लोग मीरा का नाम बड़े ही आदर एवं सम्मान के साथ लेते है।
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